Wednesday, August 8, 2007

है जरूरत वक़्त की............

है जरूरत वक़्त की तबियत बदलनी चाहिये..
अब निराशा एक भी मन में न पलनी चाहिये..
जिस राह पे उम्मीद का सूरज उदित होता मिले..
जिन्दगी उस राह पे हम सब की चलनी चाहिये..
यदि थकन उस राह पे थामती दामन मिले..
वो नये विश्वास की लपटों में जलनी चाहिये..
मानवों के भाग्य की खातिर तुझे मैं मांगता हूँ..
हे विधाता तेरी शक्ति मन को मिलनी चाहिये..
सिर्फ एक अभिलाष मन में जिन्दा रखना उम्र भर.
अपने होठों पर सदा एक प्यास पलनी चाहिये..
सिर्फ रग में बहती रौ को जग भला कब पूजता है..
उस उपासक के लिये रग लौ उगलनी चाहिये..
जोश की अग्नि प्रवाहित हो तेरी हर सांस में..
आती जाती सांस पे वो जोत जलनी चाहिये..
जिन्दगी को जीतने का अरमान मन में हो सखे..
एक विजेता की तरह ये उम्र ढलनी चाहिये..
"हो तेरा अहसास लोगों के लिये इतना अहम..
छोडे जब संसार तू...तो कमी तेरी खलनी चाहिये....
कमी तेरी खलनी चाहिये....

4 comments:

शैलेश भारतवासी said...

पहला शे'र पढ़ा तो दुष्यंत कुमार याद आये।
लेकिन पूरी ग़ज़ल अपने आप में हिन्दी-ग़ज़ल में मील का पत्थर है।

सिर्फ रग में बहती रौ को जग भला कब पूजता है..
उस उपासक के लिये रग लौ उगलनी चाहिये..
जोश की अग्नि प्रवाहित हो तेरी हर सांस में..
आती जाती सांस पे वो जोत जलनी चाहिये..

गौरव सोलंकी said...

मैं शैलेश जी से सहमत हूँ कि दुष्यंत कुमार की याद आई।
एक निवेदन है..कि आप बहुत अच्छा लिख सकते हैं तो यह कोशिश रखें कि पंक्तियाँ किसी और से प्रेरित न हों।
वैसे गज़ल प्रशंसनीय है।

SahityaShilpi said...

विपिन जी!
गज़ल बहुत ही अच्छी है. किसी से प्रभावित होकर लिखने को यद्यपि मैं बुरा नहीं मानता पर फिर भी यदि आप अपने खयाल को अपने ही हिसाब से ढालें तो बेहतर होगा. वैसे यह प्रवृति गज़ल की विधा में नयी नहीं है, कई नामी शायरों ने भी अपनी पूर्ववर्ती गज़लों के आधार पर गज़लें लिखीं हैं.
गज़ल में एक-दो जगह रवानगी की कमी झलकती है. परंतु कुल मिलाकर एक अच्छी गज़ल है. बधाई!

Anonymous said...

मन जी आपकी गज़ल पढ़ के सच मे एक बार लगा कि "दुष्यंत कुमार जी" को पढ़ रही हूँ, जैसा कि शैलेश जी ने कहा !
- "वेदिका"