अब आफताब की किरणों में रोशनी न रही..
ये जिन्दगी भी बिना तेरे जिन्दगी न रही..
बस एक तुमको नही पाया तो रंज लगता है..
यूँ मेरे पास किसी चीज की कमी न रही..
मैं तुमसे दूर हूँ जिन्दा हूँ शर्म भी है मुझे..
गुनाह ये है कि आसान खुदखुसी न रही..
"तुम क्या जानो क्या गुजरी है उस के सीने पर..
जिस माहताब के साये में चांदनी न रही....
विपिन चौहान "मन"
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